#बांग्लादेश_मुक्ति_युद्ध
#बांग्लादेशी_शरणार्थी_शिविर
#मुलमुला
बांग्लादेश आज अपनी आजादी की स्वर्ण-जयंती मना रहा है। इस खास मौके पर भारत के प्रधानमंत्री मान. नरेंद्र मोदी जी बांग्लादेश की यात्रा पर हैं।
1971 के 'बांग्लादेश मुक्ति युद्ध' की कुछ यादें मेरे गांव मुलमुला से भी जुड़ी है।
युद्ध के दौरान विस्थापित हजारों हिन्दू परिवार को मुलमुला में अस्थायी बस्ती बसाकर रखा गया था।
यह शरणार्थी बस्ती मुलमुला के त्रिमूर्ति चौक से बिलासपुर रोड पर कुटिघाट तक सड़क के दोनों ओर बसाया गया था।
यहां लगभग 01 वर्ष तक बांग्लादेशी शरणार्थी रहे। इस दौरान मुलमुला, कोनार सहित आसपास के गांवों के स्थानीय निवासियों से उनके मधुर सम्बन्ध रहे, साथ ही उनकी दिनचर्या कौतूहल का विषय भी बना रहा। खासकर शरणार्थियों का मेंढक, लाल माटा खाना ।
लोगों ने उनका हर सम्भव स्तर तक सहयोग कर 'अतिथि देवो भवः' की सनातनी परम्परा का बखूबी निर्वहन भी किया।
कल इस विषय पर गांव के बुजुर्गों से चर्चा के दौरान कई रोचक कहानी भी सुनने को मिली। शरणार्थियों के जाने के बाद बस्ती की शेष सामाग्री नीलाम कर दी गयी। उसके बाद से उस स्मृति को सहेजने का कोई प्रयास नहीं किया गया।
उस दौरान पानी की व्यवस्था के लिए सैकड़ों बोर किये गए। आज भी कई स्थानों पर यह दिखता है। इस पोस्ट में ऐसे ही एक बोर का फोटो दिख रहा है, जो वर्तमान गोठान के परिसर में है।
शासन से निवेदन इस स्मृति को अक्षुण्ण बनाये रखने समुचित प्रयास किया जाए।
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